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भूमिका
भारतीय संस्कृति में मित्रता को पवित्र रिश्ता माना गया है। महाभारत और पुराणों में ऐसी कई कथाएँ हैं जो मित्रता की सच्चाई और भक्ति की महिमा को दर्शाती हैं। कृष्ण-सुदामा की कथा उनमें सबसे हृदयस्पर्शी और अमर मानी जाती है।
लेकिन इस कथा का एक पहलू ऐसा भी है, जो कम लोगों को पता है – श्रापित चने। यह वही घटना है, जिसने सुदामा के जीवन का मार्ग बदल दिया और उनकी मित्रता को अमर बना दिया।
गुरुकुल का जीवन और मित्रता
सांदीपनि ऋषि के आश्रम में शिक्षा ग्रहण करते समय कृष्ण और सुदामा की मित्रता गहरी हो गई थी।
दोनों एक साथ अध्ययन करते, वन से लकड़ी लाते, पुष्प चुनते और आश्रम की सेवा करते।
कृष्ण यदुवंशी राजकुमार थे और सुदामा निर्धन ब्राह्मण के पुत्र, फिर भी उनके बीच कभी भेदभाव नहीं था।
भृगु ऋषि और श्रापित चने की घटना
एक दिन आश्रम में भृगु ऋषि पधारे। वे अपने क्रोधी स्वभाव के लिए प्रसिद्ध थे। उन्होंने गुरुमाता से भिक्षा माँगी।
उस दिन रसोई में भिक्षा देने लायक सामग्री नहीं थी। गुरुमाता ने कहा –
“ऋषिवर, कृपया कल पधारें, तब मैं उचित भिक्षा दे पाऊँगी।”
भृगु ऋषि को यह अपमान लगा। उन्होंने ध्यान लगाया और देखा कि रसोई में वन जाने वाले बालकों के लिए चनों की पोटली रखी है।
क्रोध में उन्होंने कहा –
“बालकों की चिंता अधिक है, ऋषि की कम…!“
और वे चने श्रापित कर दिए –
“जो भी इन चनों को खाएगा, उसके जीवन से लक्ष्मी सदा के लिए चली जाएगी।”
सुदामा का त्याग
सुदामा ने यह श्राप सुन लिया।
उन्होंने सोचा –
“यदि कृष्ण ने ये चने खा लिए, तो उनका भविष्य लक्ष्मीहीन हो जाएगा।”
इसलिए जब वन में दोनों मित्र लकड़ी और पुष्प चुनने गए, सुदामा ने जिद करके दोनों पोटलियाँ अपने पास रख लीं।
वन में जब बारिश शुरू हुई, कृष्ण एक वृक्ष के नीचे खड़े हो गए।
सुदामा वृक्ष की डाल पर चढ़ गए और छिपकर सारे चने खा लिए, ताकि कृष्ण उन श्रापित चनों से बच जाएँ।
सुदामा के आँसू बह रहे थे –
“हे लाला, तेरे जीवन में सुख रहे, मैं अपने भाग्य को तेरे चरणों में समर्पित करता हूँ।”
इस प्रकार, सुदामा ने श्राप अपने ऊपर ले लिया और उनका जीवन निर्धनता में बीतने लगा।
सुदामा का निर्धन जीवन
समय बीता… कृष्ण द्वारका के महाराज बने और सुदामा अपनी पत्नी के साथ फटी-पुरानी झोपड़ी में।
घर में अन्न का एक दाना भी मुश्किल से मिलता।
पत्नी ने एक दिन कहा –
“तुम्हारा मित्र कृष्ण द्वारका के राजा हैं, उनसे मिल आओ।”
संकोच और आत्मसम्मान के कारण सुदामा ने मना किया, पर पत्नी की सौगंध मानकर वे निकल पड़े।
सुदामा की भेंट
घर में देने को कुछ नहीं था। पत्नी ने चार घरों से एक-एक मुट्ठी चावल इकट्ठे करके भेंट तैयार की।
सुदामा ने पोटली कमर पर बाँधी और द्वारका की ओर चल पड़े।
लंबी यात्रा के बाद जब द्वारका पहुँचे, तो द्वारपालों से बोले –
“मैं कुछ माँगने नहीं आया हूँ। मैं कृष्ण का बचपन का मित्र हूँ। बस एक झलक चाहता हूँ।”
द्वारका में मिलन का दृश्य
जैसे ही कृष्ण ने सुना कि उनका मित्र सुदामा द्वार पर है, वे भोजन छोड़कर नंगे पाँव दौड़ पड़े।
उन्होंने सुदामा को गले लगाया, आँसुओं से उनके चरण धोए, और उन्हें राजसिंहासन पर बिठाया।
कृष्ण की रानियाँ भी इस दृश्य को देखकर भाव-विभोर हो गईं।
कृष्ण बोले –
“मित्र, मेरे लिए क्या लाए हो?”
सुदामा लज्जित हो गए, पर कृष्ण ने पोटली छीनकर प्रेम से चावल खाने लगे।
कृष्ण की कृपा
सुदामा ने कुछ माँगा नहीं।
खाली हाथ लौटते समय जब अपने गाँव पहुँचे, तो देखा –
उनकी झोपड़ी स्वर्ण महल में बदल चुकी थी।
संपन्नता लौट आई, लेकिन उनके हृदय में कृष्ण की मित्रता ही सबसे बड़ा खजाना थी।
कथा का आध्यात्मिक संदेश
- प्रेम और त्याग सबसे बड़ा धन है।
- भगवान भेंट का मूल्य नहीं, भाव देखते हैं।
- सच्चा मित्र वह है जो अपने सुख-दुख में भेद न करे।
- श्राप भी भक्ति से आशीर्वाद में बदल सकता है।